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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2019
📲 चंद्रधर शर्मा गुलेरी 📚
📚 उसने कहा था
✍️चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
⏹️बडे-बडे शहरों के इक्के-गाडिवालों की जवान के कोडाें से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगायें। जब बडे-बडे शहरों की चौडी सडक़ों पर घोडे क़ी पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोडे क़ी नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं,कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लङ्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमडा कर बचो खालसाजी। हटो भाईजी। ठहरना भाई जी। आने दो लाला जी। हटो बाछा। -- कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और 'साहब बिना सुने किसी को हटना पडे। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढिया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।
⏹️ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लडक़ा और एक लडक़ी चौक की एक दूकान पर आ मिले।
⏹️उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पडता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बडियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गँुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापडाें की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
''तेरे घर कहाँ है?''
''मगरे में; और तेरे?''
'' माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?''
''अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।''
''मैं भी मामा के यहाँ आया हँू , उनका घर गुरूबाजार में हैं।''
⏹️इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लडक़े ने मुसकराकार पूछा, ''- तेरी कुडमाई हो गई?''
⏹️इस पर लडक़ी कुछ आँखें चढा कर धत् कह कर दौड ग़ई, और लडक़ा मुँह देखता रह गया।
⏹️दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लडक़े ने फिर पूछा, तेरी कुडमाई हो गई? और उत्तर में वही 'धत् मिला। एक दिन जब फिर लडक़े ने वैसे ही हँसी में चिढाने के लिये पूछा तो लडक़ी, लडक़े की संभावना के विरूद्ध बोली - ''हाँ हो गई।''
''कब?''
''कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।''
⏹️लडक़ी भाग गई। लडक़े ने घर की राह ली। रास्ते में एक लडक़े को मोरी में ढकेल दिया, एक छावडीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहँुचा।
📲 (दो)
''राम-राम, यह भी कोई लडाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हड्डियाँ अकड ग़ईं। लुधियाना से दस गुना जाडा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाडनेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पडती है।
⏹️इस गैबी गोले से बचे तो कोई लडे। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।''
⏹️''लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों रिलीफ आ जाएेगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हो।''
⏹️''चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोडा बिगडता है और बिना लडे सिपाही। मुझे तो संगीन चढा कर मार्च का हुक्म मिल जाए। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटँू, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोडे -- संगीन देखते ही मँुह फाड देते हैं, और पैर पकडने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो -- ''
⏹️''नहीं तो सीधे बर्लिन पहँुच जाते! क्यों?'' सूबेदार हजारसिंह ने मुसकराकर कहा -- ''लडाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बडे अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ ग़ये तो क्या होगा?''
⏹️''सूबेदारजी, सच है,'' लहनसिंह बोला - ''पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाडा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाए, तो गरमी आ जाए।''
⏹️''उदमी, उठ, सिगडी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदल ले।'' -- यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।
⏹️वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला - ''मैं पाधा बन गया हँू। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण !'' इस पर सब खिलखिला पडे अौर उदासी के बादल फट गये।
⏹️लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा - ''अपनी बाडी क़े खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।''
⏹️''हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लडाई के बाद सरकार से दस धुमा जमीन यहाँ माँग लँूगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।''
⏹️''लाडी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम -''
''चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।''
''देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हँू तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लडेग़ा नहीं।''
''अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?''
''अच्छा है।''
⏹️''जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढाते हो और आप सिगडी क़े सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकडी क़े तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड में पडे रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड ज़ाना। जाडा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।''
⏹️''मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड क़ी छाया होगी।''
⏹️वजीरासिंह ने त्योरी चढाकर कहा -- ''क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक ! हाँ भाइयों, कैसे ़ ़ ''
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेडा सौदा अडिए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नँु।
कद्द बणाया वे मजेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नँु।।
कौन जानता था कि दाढियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गायेंगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गँूज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
📲 (तीन)
दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ क़र सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खडा हुआ है। एक आँख खाई के मँुह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
''क्यों बोधा भाई, क्या है ?''
''पानी पिला दो।''
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