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सोमवार, 2 दिसंबर 2019
#छायावाद
द्विवेदी युगोपरांत हिन्दी काव्य का काल
छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. १९१८ से १९३६ तक की प्रमुख युगवाणी रही।
[1] जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानदन पंत, महादेवी वर्मा इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है।
[2] मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | कृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद ब्रजभाषा हिंदी काव्य धारा से बाहर हो गई। इसने हिंदी को नए शब्द, प्रतीक तथा प्रतिबिंब दिए। इसके प्रभाव से इस दौर की गद्य की भाषा भी समृद्ध हुई। इसे 'साहित्यिक खड़ीबोली का स्वर्णयुग' कहा जाता है।
छायावाद के नामकरण का श्रेय 'मुकुटधर पांडेय' को दिया जाता है। इन्होंने सर्वप्रथम 1920 ई में जबलपुर से प्रकाशित श्रीशारदा (जबलपुर) पत्रिका में 'हिंदी में छायावाद' नामक चार निबंधों की एक लेखमाला प्रकाशित करवाई थी।[3]
हिंदी कविता में छायावाद का युग द्विवेदी युग के बाद आया। द्विवेदी युग की कविता नीरस उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी। छायावाद में इसके विरुद्ध विद्रोह करते हुए कल्पणाप्रधान, भावोन्मेशयुक्त कविता रची गई। यह भाषा और भावों के स्तर पर अपने दौर के बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजली से बहुत प्रभावित हुई। यह प्राचीन संस्कृत साहित्य (वेदों, उपनिषदों तथा कालिदास की रचनाओं) और मध्यकालीन हिंदी साहित्य (भक्ति और शृंगांर की कविताओं) से भी प्रभावित हुई। इसमें बौद्ध दर्शन और सूफी दर्शन का भी प्रभाव लक्षित होता है। छायावादयुग उस सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरण का सार्वभौम विकासकाल था जिसका आरंभ राष्ट्रीय परिधि में भारतेंदुयुग से हुआ था।
वस्तुजगत् अपना घनत्व खोकर इस जग मेंसूक्ष्म रूप धारण कर लेता, भावद्रवित हो।
कवि के केवल सूक्ष्म भावात्मक दर्शन का ही नहीं, 'छाया' से उसके सूक्ष्म कलाभिव्यजंन का भी परिचय मिलता है। उसकी काव्यकला में वाच्यार्थ की अपेक्षा लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता है। अनुभूति की निगूढ़ता के कारण अस्फुटता भी है। शैली में राग की नवोद्बुद्धता अथवा नवीन व्यंजकता है।
द्विवेदी युग में कविता का ढाँचा पद्य का था। वस्तुत: गद्य का प्रबंध ही उसमें पद्य हो गया था, भाषा भी गद्यवत् हो गई थी। छायावाद ने पद्य का ढाँचा तोड़कर खड़ी बोली को काव्यात्मक बना दिया। पद्य में स्थूल इतिवृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अतंर्वृत्त था, छायावाद के काव्य में भावात्मक अंतर्वृत्त आ गया। भाव के अनुरूप ही छायावाद की भाषा और छंद भी रागात्मक और रसात्मक हो गया। ब्रजभाषा के बाद छायावाद द्वारा गीतकाव्य का पुनरुत्थान हुआ। छायावाद युग के प्रतिनिधि कवि हैं- प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार। पूर्वानुगामी सहयोगी हैं- माखनलाल और 'नवीन'।
गीतकाव्य के बाद छायावाद में भी महाकाव्य का निर्माण हुआ। तुलसीदास जैसे 'स्वांत:' को लेकर लोकसंग्रह के पथ पर अग्रसर हुए थे वैसे ही छायावाद के कवि भी 'स्वात्म' को लेकर एकांत के स्वगत जगत् से सार्वजनिक जगत् में अग्रसर हुए। प्रसाद की 'कामायनी' और पंत का 'लोकायतन' इसका प्रमाण है। 'कामायनी' सिंधु में विंदु (एकांत अंतर्जगत्) की ओर है, 'लोकायतन' विंदु में सिंधु (सार्वजनिक जगत्) की ओर।
विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावादसंपादित करें
रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है कि- "संवत् १९७० के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए।[4] यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद अथवा चित्रभाषावाद को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया।
छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’ छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मक (कथात्मकता) की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। जैसे, "धूल की ढेरी में अनजाने, छिपे हैं मेरे मधुमय गान।""
नंददुलारे वाजपेयी ने लिखा है कि- "प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास में लिखा है कि- "द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख।"
नगेन्द्र ने लिखा है कि- "1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई।"
नामवर सिंह ने छायावाद में लिखा है कि- "छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।"
छायावादी कवियों की दृष्टि
जयशंकर प्रसाद ने लिखा कि- "काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।" वे यह भी कहते हैं कि- "छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।"
सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं।
महादेवी वर्मा छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी।’ इस प्रकार महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे रहस्यवाद को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।
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